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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

रहो खाट पर सोय !


"शाम का यह सुहावना समय और तुम अपनी इस कोठरी में पड़े किताब के पन्ने चाट रहे हो। यह अजब बेवकूफ़ी है। उठो और ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम पास के ही पार्क में घूमते-घामते नज़र आओ। आख़िर ऐसी भी क्या मनहूसियत है?"

“जी, शाम का यह सुहावना समय और तुम खामखा मेरी कोठरी में घुसे मेरे पुस्तक पढ़ने के आनन्द में मूसलचन्द बन रहे हो। यह अजब बेवकूफ़ी है। उठो और ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम बाहर की सड़क पर ही घमते-फिरते नज़र आओ। आख़िर ऐसी भी क्या मनहसियत है?"

“अरे भाई, तुम भी कमाल के आदमी हो ! हमने कही एक स्वास्थ्य-विज्ञान की बात और तुम ले उड़े उसे मज़ाक़ में और फिर मज़ाक़ भी हलका कि हमारी ही बात हम पर फ़िट कर रहे हो। यह अजीब मनमानी है तुम्हारी !"

"अरे भाई, तुम भी कमाल के आदमी हो। हमने कही एक जीवन-विज्ञान की बात और तुम ले उड़े उसे मज़ाक़ में। अच्छा रहने दो अब और आगे नहीं कहता। वरना तुम कहोगे कि यह मेरी ही बात मुझ पर फ़िट कर रहा है।"

“तो शाम के समय अपनी कोठरी में घुसकर खटिया पर पड़े पुस्तक पढ़कर स्वास्थ्य ख़राब करना भी एक जीवन-विज्ञान है; क्या अजीब मनमानी है!"

“जी हाँ, शाम के समय कोठरी में घुसकर खटिया पर पड़े पुस्तक पढ़ना भी जीवन-विज्ञान है, पर मैं यह स्वीकार करने में शरमाऊँगा नहीं कि यह अधूरा जीवन-विज्ञान है और लीजिए तुम्हें नये प्रश्नों की मशक्क़त से बचाने को यह भी बता दूं कि यह पूरा तब होता जब मैं यहाँ खटिया पर पड़े पुस्तक पढ़ता नहीं, खुर्राटों के साथ सोता तुम्हें मिलता।"

“वाह मेरे शेर, क्या छलाँग मारी है तुमने कि शाम के समय श्रीमान् जी सोते मिलते तो जीवन-विज्ञान पूरा हो जाता। अरे मियाँ, यह क्यों नहीं कहते कि खटिया पर मरे मिलते तो जीवन-विज्ञान में चार चाँद ही लग जाते !"

"इसमें न वाह की ज़रूरत है, न आह की; बात तो सिर्फ इतनी है कि तुम्हें हो गयी है अक्ल की बदहज़मी और मैं बात कर रहा हूँ अक्ल की, जिसे तुम पचा नहीं सकते, पर खैर, अब मेरी कोठरी में आ गये हो तो तुम्हारी खोपड़ी में भी यह जीवन-विज्ञान उतारना ही पड़ेगा।"

"कैसे?"

"कैसे क्या था इसमें? बस हकीम तुलसीदास की हाजमे की गोली देनी पड़ेगी तुम्हें; और जहाँ वह गोली तुमने ज़रा पपोली, चूसी कि तुम्हारे दिमाग के किवाड़ इस तरह खुल जाएँगे जैसे भगवान् वेदव्यास की कृपा से कभी संजय के खुल गये थे।"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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